जगद्गुरूत्तम

जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज इस जगत के पंचम मूल जगद्गुरु है । ये ‘ब्रज गोपिका सेवा मिशन’के दिव्य प्रेरणा-स्रोत व संरक्षक हैं । ‘काशी विद्वत् परिषत्’(५०० विद्वज्जनों, दार्शनिकों और चिंतकों की सभा) द्वारा इन्हें ‘जगद्गुरूत्तम’की उपाधि तब दी गई, जब उन्होंने इनके अपरिमेय-असीम वेद-शास्त्रों के प्रमाणयुक्त अद्वितीय प्रवचन को सुना एवं इनके ब्रह्मनिष्ठ (भगवत्प्राप्त) होने का स्वयं प्रमाण पाया । इनके अलौकिक व्यक्तित्व को पहचानकर इनके प्रति असीम श्रद्धा ज्ञापित करते हुए उन्होंने न केवल इन्हें पंचम मूल ‘जगदगुरु’ घोषित किया, बल्कि इनके समस्त जगद्गुरुओं में सर्वोत्कृष्ट, ‘जगद्गुरूत्तम’ होने की भी घोषणा की । इस जगत में अब तक मात्र पाँच जगद्गुरु हुए हैं ।
सर्वोपरि वैदिक व्याख्यता संत
कलियुग के महान उद्धारक

का अवतरण
आध्यात्मिकता की नींव

जैसो है नहिं सकल विश्व महँ, कोउ समरथ सरकार ।
जगत को दिव्योपहार – रूपध्यान
प्रत्येक जीव श्रीराधाकृष्ण का प्रेम ही पाना चाहता है ।

श्री महाराज जी कहते हैं- रूपध्यान ही भक्तियोग का प्राण है । भक्ति में रूपध्यान ही सबसे पहली और सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण चीज है । प्रतिपल अपनी समस्त मानसिक शक्ति को भगवान से जोड़ने का सबसे सुन्दर और सरल उपाय है- ‘रूपध्यान’ । यह मायिक विचारधारा को दिव्य चिन्तन में रूपान्तरित करने का अद्भुत तरीका है ।
रूपध्यान के बिना साधना का अभ्यास प्राणहीन शरीर के समान है । मानव मस्तिष्क रूप-आकार बनाने का अनादिकाल से अभ्यस्त है । उसकी इसी विशेषता का भगवदीय क्षेत्र में पूर्ण उपयोग व सर्वांगीण विकास ही रूपध्यान है ।
जे.के.पी. – एक सामाजिक-आध्यात्मिक संस्था
दिव्य प्रेम के बीज का भक्ति से ही पोषण

श्री महाराज जी ने लोककल्याणकारी जनहित में अविश्वसनीय भौतिक सेवाएं प्रदान की हैं। इस जनकल्याणकारी सेवा के तहत श्री महाराज जी ने मनगढ़, वृन्दावन औैर बरसाना में सभी अत्याधुनिक सुविधाओं से लैश बड़ा अस्पताल बनवाया है, जहाँ सभी स्वास्थ्य सुविधाएं पूर्णत: नि:शुल्क हैं। इसके द्वारा लड़कियों के लिए पूणत: नि:शुल्क विद्यालय और महाविद्यालय भी खोलें गए हैं, जहाँ शिक्षा संबंधी सभी आवश्यकताओं का ध्यान रखकर सबकुछ उन्हें नि:शुल्क प्रदान किया जाता है । इसके साथ जनकल्याणकारी विविध कार्यक्रम वर्ष भर चलाए जाते हैं। आज‘जगद्गुरु कृपालु परिषत्’उनके मार्गदर्शित लोककल्याणकारी पथ पर चलकर इस सभी लोककल्याणकारी जनहित सेवाओं को अपने हरि-गुरु की सेवा मानकर उसी भाँति बड़ी निष्ठा से कर रहा है ।
प्रेम मंदिर, भक्ति मंदिर, भव्य भक्ति भवन अद्वितीय भक्तिपरक और ज्ञानपरक रचनाएं एवं क्रियात्मक ‘रूपध्यान’ साधना पद्धति मानवमात्र को इनके द्वारा प्रदत्त अमूल्य उपहार है ।
शाश्वत गुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा रहस्योद्घाटन
दिव्य व्यक्तित्व का क्रांतिकारी कदम

ज्ञान और भक्ति के अगाध अंबुधि जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ने भारत के वेद-शास्त्र-दर्शन एवं संसार के समस्त ११ धर्मों का सप्रमाण समन्वात्मक स्वरूप प्रस्तुत कर इस जगत के सभी प्रकार के मत-मतान्तरों का निवारण किया है। इन्होंने अपने तत्त्वदर्शन में सभी धर्मों का समान रूप से विश्लेषण कर इन सभी का सम्मान करते हुए इनके एकत्व का मार्ग प्रशस्त किया है।
इस भाँति इन्होंने जनकल्याण का हत्प्रभ करने वाला विस्तार कर समस्त जगत को अपरिमेय अपनत्व के सूत्र में बाँधा है।
भक्ति प्राधान्य प्रवचन और अनूपमेय ‘रूपध्यान’ क्रियात्मक साधना हमारी सभी अध्यात्मिक जिज्ञासाओं के शमन में सक्षम है। इसके साथ यह अनूठा तत्त्वज्ञान भौतिक जीवन के सभी मौलिक प्रश्नों का समाधान भी स्वत: उजागर करता है।
जो सबसे ज़्यादा अचरज में डालने वाला तथ्य है, वह यह कि श्री महाराज अपना परम चरम दर्शन आमलोगों तक पहुँचाने के साथ-साथ उस अनूपमेय रस का रसास्वादन भी उन्हें क्रियात्मक साधना द्वारा करा रहे हैं, जिसका पान इससे पूर्व के आध्यात्मिक इतिहास में कभी सर्वसुलभ न रहा ।
श्री महाराज जी का दिव्य साहित्योपहार
अनूपमेय पारदर्शिता लिए परम चरम भक्तिदर्शन


प्रेम रस सिद्धांत

आत्म रक्षा

भगवद् भक्ति

भक्ति की आधारशिला

ददद

आत्मकल्याण

गुरु कृपा

नाम महिमा

प्रश्नोत्तरी

रूपध्यान

आत्मनिरीक्षण

श्रद्धा

श्री कृष्ण द्वादशी

श्री राधा त्रयोदशी

ब्रज रस माधुरी- १

ब्रज रस माधुरी- २

ब्रज रस माधुरी- ३

ब्रज रस माधुरी- ४

प्रेम रस मदिरा- १

प्रेम रस मदिरा- २

श्याम श्याम गीत

युगल माधुरी

युगल रस

भक्ति शतक

राधा गोविन्द गीत-१

राधा गोविन्द गीत-२
श्री महाराज जी की तीन सीख
प्राणिमात्र हेतु दिव्य लक्ष्य ज्ञान परमावश्यक


असंख्य ब्रह्मांड के सभी जीव दिव्य आनन्द यानी भगवान के शाश्वत अंश हैं । अत: स्वभावत: सभी जीव सच्चिदानंदमय होना चाहते हैं । अबतक उन्हें सद्घन, चिद्घन और आनन्दघन यह सर्वोपरि आनंद नहीं मिल पाया है । जब तक वह इसे पा न लेगा, तब तक वह अनवरत इसके लिए प्रतिपल प्रयत्नशील रहेगा । इसलिए सही दिशा में उस चिन्मय आनंद प्राप्ति हेतु अनुसंधान प्रत्येक जीव के लिए परम आवश्यक हो जाता है ।
भक्ति सभी प्रकार के सकामता को नकारता है । यहाँ तक की मोक्ष की कामना को भी सकामता ही कहा गया है । भगवत्भक्ति का दूसरा नाम निष्कामता है । साधना में यदि कामना आ गई तो यह साधक के लिए क्षतिकर है । अत: श्रीकृष्ण से निष्काम प्रेम करना ही जीव का एकमात्र लक्ष्य है ।
साधना में रूपध्यान का समावेश अत्यावश्यक है । रूपध्यान के बिना साधना प्राणहीन शव के समान है । निरंतर अभ्यास से साधना परिपक्व होती है । गुरु के मार्गदर्शन में रूपध्यान के साथ भगवान के नाम, रूप, लीला, धाम, जन का प्रेमपूर्वक अश्रु बहाते हुए संकीर्तन करने से हृदय का मल धुलता है । अन्त:करण के शुद्ध होने पर गुरु कृपा से जीव अपने परम चरम लक्ष्य को प्राप्त करता है ।
श्री शंकराजार्य जी
मूल जगद्गुरु परंपरा के अनुसार आदि शंकराचार्य को सर्वप्रथम जगद्गुरु माना जाता है । इनका इस जगत में अवतरण २५०० वर्ष पूर्व हुआ । सनातन वैदिक धर्म का प्रचार-प्रसार, वैदिक धर्म पालन हेतु प्रत्साहन एवं भ्रामक धार्मिक प्रचारों का निर्मूलन ही उनके अवतरण का उद्देश्य था। इनका दर्शन अद्वैतवाद कहलाता है, जो ज्ञान मार्ग का पथप्रदर्शन करता है ।
उनके सिद्धांत के अनुसार भगवान निराकार और अकर्ता हैं । इन्होंने यह भी बताया कि भगवान विशुद्ध और शाश्वत हैं, जो अपरिमेय ज्ञान और दिव्य आनन्द स्वरूप हैं। इन्होंने जगत को मिथ्या और जीव को भगवान और माया का संयुक्त परिणाम कहा है ।
इन्होंने वेद के अनोखे विवेचन के कारण स्वयं को ईश्वरवादी और अनिश्वरवादी के मध्य खड़ा किया, और एक समय ऐसा जान पड़ा कि ये ईश्वरवाद और अनिश्वरवाद दोनों के समर्थक हैं । इन्होंने यह कदम इसलिए लिया ताकि ये वे भविष्य में ईश्वरवादी आँदोलन की नींव रख सकें।
श्री माध्वाचार्य जी
श्री माध्वाचार्य जी इस धराधाम पर ७०० वर्ष पहले अवतरित हुए । वे द्वैतवाद दर्शन को मानने वाले थे । उन्होंने इस बात पर बल दिया कि भगवत्प्राप्ति ही जीव का एकमात्र लक्ष्य है । इन्होंने जीव, माया और ब्रह्म को तीन अलग-अलग तत्व बताया और ज़ोर देकर कहा कि यह भक्ति ही है, जो जीव को भगवत्प्राप्ति और मुक्ति दिला सकती है ।
इन्होंने कहा कि हमारे पिछले जन्म के कर्म के अनुसर ही हम वर्तमान जीवन प्राप्त करते हैं । हमें दुख-सुख किसी से भी नहीं प्रभावित होना चाहिए । हम हर प्रकार की परिस्थिति को हृदय से स्वीकार कर पाए, इसमें निरन्तर स्मरण सहायक सिद्ध होगा । भगवद् स्मरण, श्रवण, चिंतन और नाम-गुणगान से बढ़कर और कुछ भी नहीं है ।
श्री कृपालु जी महाराज…
आध्यात्मिक इतिहास में एक युगांतकारी घटना तब घटी जब श्री कृपालु जी महाराज ने ‘काशी विद्वत् परिषत्’, भारतीय आध्यात्मिक जगत के गणमान्य ५०० शीर्ष विद्वज्जन से सुशोभित मंडल के आमंत्रण पर अति गंभीर श्रृंखलाबद्ध व्याख्यान दिया । श्री महाराज जी निरंतर ९ दिनों तक समस्त वेद-शास्त्रों एवं पूर्व जगद्गुरुओं के दर्शनों का विस्मयकारी रहस्योद्घाटन विद्वज्जनों की भाषा संस्कृत में करते रहे । उन्होंने बड़ी सरलता से वेद-शास्त्र संबंधी विविध दर्शनों, मतों तथा पूर्व जगद्गुरुओं के दृष्टिकोण में विराधाभासी प्रतीत होने वाले तथ्यों का वास्तविक तात्पर्य प्रस्तुत करते हुए अति अद्भुत समन्वय प्रस्तुत किया और भगवत्प्राप्ति का सत्यपथ जीवमात्र के कल्याणार्थ मार्गदर्शित किया।
उनके व्याख्यान से चमत्कृत उन ५०० विद्वज्जनों एवं शास्त्रज्ञों का हृदय ऐसा मंत्रमुग्ध हो गया कि उन्होंने एक मत से इन्हें ‘जगद्गुरु’ घोषित करने की हार्दिक अभिलाषा व्यक्त की और सर्वसम्मति से उनसे यह पद स्वीकार करने की विनती की । फिर उन्होंने उन्हें गद्गद कंठ से ‘जगद्रुरूत्तम’ भी घोषित किया । ‘जगद्गुरूत्तम’ यानी समस्त जगद्गुरुओं में श्रेष्ठ । इसके अलावा उन्हें ‘भक्तियोगरसावतार’ यानी दिव्य प्रेम रूपी आनन्द-मकरन्द के साक्षात् अवतार आदि अन्य कई उपाधियों से भी विभूषित किया गया ।
श्री निम्बार्काचार्य जी
जगद्गुरु श्री निम्बार्काचार्य का अवतरण ११वीं सदी में जगद्गुरु श्री रामानुजाचार्य के कुछ काल बाद हुआ । इनका दर्शन द्वैताद्वैतवाद के नाम से जाना जाता है । उन्होंने यह शिक्षा दी कि हालाँकि भगवान और जीव में द्वैत है, किन्तु भगवान और जीव में एकत्व का संबंध भी है । भगवान का अंश होने के कारण जीव के अस्तित्व का उद्देश्य है- भगवत्कृपा प्राप्त करना और भगवत्प्राप्ति करना। साकार ब्रह्म की भक्ति में ही जीव का परम चरम आध्यात्मिक कल्याण निहित है । इन्होंने स्वयं को ईश्वर का दास बतलाया और श्रीराधाकृष्ण के प्रति सर्वभावेन समर्पण युक्त भक्ति का परिचय संसार को दिया ।
श्री रामानुजाचार्य जी
इनका अवतरण १००० वर्ष पूर्व हुआ था, इन्होंने आदि शंकराचार्य जी के अद्वैतवाद के विपर्यय में विशिष्टाद्वैतवाद को स्थापित किया । इनके अनुसार भगवान केवल रचयिता नहीं हैं, वरन् जगत के स्वामी हैं। वे सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान हैं। वे असीम हैं । उन्होंने जीव को भगवान का अंश और उनका नित्य दास कहा । उन्होंने इस बात को स्पष्ट किया कि भगवान सब जीवों के हृदय में साक्षी बनकर बैठे हैं । इन्होंने भक्तिमार्ग को ही केन्द्र-बिन्दु में रखा और घोषणा की कि यही भगवत्प्राप्ति का एकमात्र उपाय है । इन्होंने सब तरह की संसारी आसक्ति के त्याग, अहंकार के निर्मूलन, भगवन्नाम के प्रतिपल स्मरण और भगवत्सेवा हेतु परम व्याकुलता पर बहुत बल दिया। उन्होंने कहा कि भगवत्कृपा पाकर ही जीव दिव्य आनंद को प्राप्त कर सकता है ।